हरिद्वार- पतित पावनी गंगा अपने उद्गम स्थान हिमाच्छादित गोमुख से निकलकर करीब 300 किलोमीटर की टेढ़ी-मेढ़ी सर्पाकार पर्वतीय यात्रा पूर्ण कर जिस स्थान पर पहली बार मैदानी धरती को स्पर्श करती है वही स्थान ‘हरिद्वार‘ के नाम से विश्व विख्यात है। इसी मातृस्वरूपा गंगा के पश्चिमी किनारे पर, नील और बिल्व पर्वतों के बीच बसी यह सुरम्य नगरी, भारत की सात पवित्रतम मोक्षदायिनी नगरियों में से एक है।
ऐसी पवित्रतम नगरी हरिद्वार के उज्जवल आकाश में देवीप्यमान नक्षत्र की भांति छटा-बिखरे रहा है यह नवतीर्थ, चिंतामणि पाश्र्वनाथ जैन श्वेताम्बर तीर्थ, जिसके प्रति संपूर्ण जैन समाज की आस्था एवं निष्ठा समर्पित है। आस्थावान जैन धर्मावलम्बियों के लिए इस तीर्थ का एक-एक कण पवित्र है।
प्रथम तीर्ककर भगवान आदिनाथ (ऋषभदेव) ने दीक्षा से पूर्व अपने सो पुत्रों को अपना राज्य बांटा था। विनिता (अयोध्या) का मुख्य राज्य मिला था, उनके पुत्र भारक्षज को। अनंतानंत काल तक यहाॅ के महाराजा धर्म-परायण जीवन व्यतीत कर परमपद के अधिकार बनते रहे हैं। यह नगर पिछले पाॅच हजार से अधिक वर्षों से हिन्दुओं का प्रमुख तीर्थ स्थान है। हरिद्वार में इसी कारण से सरकार ने मदिरा एवं मास का सेवन पूर्णतः वर्जित कर रखा है।
जैन शास्त्रानुसार, प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेव का निर्वाण अष्टापद पर्वत पर हुआ था। वर्तमान में अष्टापद अज्ञात है पह वह अवश्यमेव ही हिमालय पर्वतमाला में कैलाश पर्वत के पास कहीं होना संभाव्य है। प्रभु आदिनाथ निर्वाण के समय जब अष्टापद पधारे होंगे तो उनके पावन चरण अवश्य ही हरिद्वार की पावन धरती पर पड़े होंगे।
शत्रुंजन तीर्थ पर रायण पगले पर भगवान आदिनाथ के जो चरण कमल स्थापित है उसी के अनुरूप एवं उसी आकार के चरण कमलों की देहरी श्री चिंतामणि पाश्र्वनाथ जैन श्वेताम्बर मंदिर के दाहिनी और रायण रूख सहित स्थापित है। इन चरण कमलों की प्रतिष्ठा-स्थापना पूज्य आचार्य देव पदम्सागर सूरि जी म0सा0 की पावन निश्रा में दिसम्बर 1997 में हुई।
अक्षय तृतीया के शुभ अवार पर वर्षीतप के तपस्वी हस्तिनापुर में इक्षुरस से पारणा कर अगले दिन इस तीर्थ पर पारणा कर, भगवान के चरण कमलों की सेवा-पूजा करके धन्य होते हैं।
तीर्थ स्थापना का इतिहास- भारत भर में सर्वाधिक धर्मशालाओं से अलकृंत इस हरिद्वार की पवित्र तीर्थ भूमि पर न तो कोई जैन धर्मशाला/उपाश्रय ही था और न ही कोई श्वेताम्बर जैन मंदिर। मोतीलाल बनारसीदास प्रकाशन संस्थान के स्व0 लाला सुदंरलाल जी जैन को यह कमी सदैव खटकती थी। लाला जी ने अनेक अवसरों पर इसकी चर्चा सेठ आनंद जी कल्याण जी पेढ़ी के अध्यक्ष सेठ कस्तूरभाई लालभाई से की थी। उनकी भी यही भावना थी कि इस पुण्यभूमि पर एक भव्य जैन मंदिर एवं साथ ही धर्मशाला, उपाश्रय एवं भोजनशाला का निर्माण हो। पर उनका यह स्वप्न उन दोनों महानुभावों के जीवन काल में साकार नहीं हो पाया।
लाला सुंदरलाल जी के भतीजे पदाश्री स्व0 शांतिलाल जैन को हरिद्वार में जैन मंदिर बनाने की भावना विरासत में मिली थी। उहोंने चेन्नई के सुश्रावक, अनन्य नवकारभक्त स्व0 श्री मोरीलालजी नाहर के समक्ष अपनी पावन भावना व्यक्त की। अंतः प्रेरणा एवं परम पूज्य आचार्य श्री कलापूर्णसूरिजी म0सा0 तथा पूज्य मुनिराज श्री जम्बूविजयजी म0सा0 के शुभ आशीर्वाद से प्रेरित होकर श्रीयुत शोरीलालजी ने स्वयं को इस परियोजना के साथ तन-मन-धन से जोड़ा एवं इसके निर्माण का सर्व कार्य अपने कंधों पर लिया। दैव योग से चेन्नई निवासी स्व0 श्री अमरचंदजी वैद भी, जिन्हें अपने दिवगंत पिताजी का दैविक सान्धिय प्राप्त था, इस परियोजना की महत्वपूर्ण कड़ी बने और मंदिर निर्माण का स्वप्न साकार होने लगा।
मूल योजना के लिए सर्वप्रथम भूमि का चयन एवं क्रय लाला शांतिलाल जी ने अपने मित्र एवं मंिदर न्याय के वर्तमान अध्यक्ष, पदा्श्री श्री ज्ञानचंद जी जैन के सहयोग से किया। ‘‘अच्छी शुरूआत अपने आप में आधे कार्य की समाप्ति मानी जाती है।‘‘ आज तीर्थ परिसर कुल एक लाख वर्ग फुट भूमि पर फैला हुआ है और विस्तार का क्रम जारी है।