श्री आदिनाथाय नमः
सर्वसुख सम्पूर्ण विश्व के इतिहास में भारतवर्ष नाम का देश अपनी अनुपम छटा हेतु प्रसिद्ध है। इसी भारत देश में उत्तर प्रदेश राज्य के उत्तरी भाग से देव भूमि उत्तरांचल राज्य जो 09.11.2000 में बना था, जिसे अब 01.01.2007 से देव भूमि उत्तराखण्ड के नाम से जाना जाता है। जिसमें हरिद्वार नगर एक विश्व विख्यात शहर है, जो तीर्थो की श्रृंखला में अपनी पहचान चारों धामों की यात्रा का प्रवेश द्वार है। इसी हरिद्वार तीर्थ क्षेत्र को जैन मतावलम्बियों अनुसार प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेव जी की विचरण स्थली एवं कैलाश पर्वत को निर्वाण स्थल के रूप में जानते हैं।
इसी शुभ हरिद्वार तीर्थ के नगर में हजारों वर्षों के इतिहास में प्रथम बार एक दिगम्बर साधु मुनि श्री 108 श्री “विद्यानन्द” जी महाराज चारों धाम में प्रमुख श्री “बद्रीनाथ” धाम यात्रा के उद्देश्य से शुभ दिनांक 23 मई 1969 में प्रवेश कर तीन-चार दिन के प्रवास हेतु रूके। जिनका इतिहास साक्षी है कि सभी धर्मावलम्बी के परम श्रद्धेय महन्त एवं साधु संतों के साथ सभी जाति के समाजिक वर्गो ने हृदय से एवं प्रसन्न मन से भरपूर होकर अभूतपूर्व स्वागत किया था, जो हरिद्वार नगर हेतु हमेशा चिरस्मरणीय बन गया।
इस समय यहां दर्शनार्थ जैन मन्दिर भी नहीं था एवं जैन विधि से सुसंस्कृत कोई जैन स्थान, साधु एवं विद्वानों व विशेष आगन्तुक हेतु नहीं था, जिससे उक्त साधु के आगमन पर अनेक कठिनाई बनी रहीं।
उक्त दिगम्बर साधु मुनि-महाराज ने अन्य स्थानों पर रूकते-रूकते यहां स्थित जैन धर्मावलम्बियों के परिवारों में समर्पित धर्मभावना को परखते हुए यह संकल्प धारा की। यहां एक जैन मन्दिर व जैन स्थान अतिथ्य विश्राम हेतु स्थापित होना चाहिए। ऐसा मन व विचार बना दिगम्बर मुनि श्री “बद्रीनाथ” यात्रा हेतु गमन कर गये एवं लौटते हुए मुनि श्री ने अपना चार्तुमास का प्रवास श्रीनगर गढ़वाल जैन मन्दिर के नजदीक स्थान पर व्यतीत किया। चार्तुमास पूर्ण कर दिगम्बर मुनि 108 श्री ‘विद्यानन्द’ जी महाराज दिसम्बर 1969 में ही हरिद्वार तीर्थ में पुनः पधारे। स्थानीय सहयोग से व्यवस्था श्री गीता भवन (पंजाब महावीर दल) स्थित हरिद्वार तीर्थ में हुई। अपने 30 दिवस लगातार प्रवास दौरान मुनिश्री ने प्रतिदिन प्रवचन दिये। इसी दौरान मुनिश्री के समक्ष श्रीयुत लाला राजकृष्ण जी जैन दरियागंज, दिल्ली ने हरिद्वार आकर मुनि जी के समक्ष अपनी इच्छा मन्दिर निर्माण कराने की रखी। मुनि श्री ने प्रसन्न मन से आर्शीर्वाद दिया। लाला राजकृष्ण जी जैन अपने पुत्र के साथ मुनिश्री का आशीष वचन लेकर दिल्ली लौट गये एवं अपने प्रियपुत्र श्री प्रेमचंद जी जैन को हिरद्वार में शीघ्र ही जैन मन्दिर व जेन स्थान बनाने का अपना मन बताया और आदेश दिया कि कार्य पूर्ण कराओ।
मुनि श्री के इस लम्बे प्रवास में अनेक प्रकार से मंत्रणा चलती रही एवं स्थानीय मंच पर एक कमेटी का भी गठन किया तथा मन्दिर निर्माण हेतु कुछ वचन रूप एवं नगद राशि भी बैंक में जमा हुई।
श्री राजकृष्ण जैन ट्रस्ट दिल्ली के नाम से श्रीयुत् प्रेमचंद जी जैन पुत्र स्वर्गीय श्री राजकृष्ण जी जैन, दरियागंज, दिल्ली ने अपने पिता की इच्छा को मन में रखकर मन्दिर निर्माण के प्रयास में रात-दिन एक कर दिया। अथक् प्रयासों द्वारा उत्तर प्रदेश शासन से हरिद्वार शहर स्थित ललतारौ पुल पर जैन मन्दिर एवं उसके बराबर जैन विश्रामालय, निःशुल्क औषधालय, लाईब्रेरी आदि हेतु जमीन लेने की ठान ली। प्रयास पर प्रयास करके, उत्तर प्रदेश शासन से मन्दिर हेतु स्थान मिल गया एवं इससे लगा स्थान अन्य निर्माण कार्य के लिए प्रस्ताव लम्बित रहा।
श्री प्रेमचन्द जैन अकेले होने पर भी कार्य करते रहे एवं मुनि श्री के आशीर्वाद से अनेक अड़चनों के बाद भी सफल होते चले गये। श्री प्रेमचन्द जी को स्थानीय सहयोग निरन्तर मिलता गया, अपने कार्यो में प्रथम जैन मन्दिर को अहिंसा मन्दिर का रूप दिया गया। इसी श्रृंखला में प्रयास करके, श्री प्रेमचन्द जी जैन ने अहिंसा मन्दिर के निर्माण का शिलान्यास दिनांक 17 अगस्त 1980 को पंजाब राज्य के महामहिम राज्यपाल तत्कालीन श्री “जयसुखलाल हाथी” द्वारा सम्पन्न कराया एवं सम्माननीय महामहिम राज्यपाल महोदय की सहायता से पंजाब सरकार से पांच हजार रूपये की राशि मन्दिर हेतु प्राप्त कर ली। लाला प्रेमचन्द जी जैन ने निर्माण में पूर्ण उत्साह दिखाया व स्थानीय समाज के प्रतिनिधियों का पूर्ण सहयोग प्राप्त किया। एक बड़ा हाॅल व कुछ कमरों के निर्माण हो जाने पर एक कमरे में जैन धर्म के बाईसवें तीर्थकर भगवान ‘नेमिनाथ’ की प्रतिमा जी 1980 वर्ष में विराजमान की गई। तभी से नित्यप्रति प्रक्षाल-पूजा व उत्सव क्रमबद्ध होते रहे, धीरे-धीरे निर्माण कार्य भी चलता रहा।
भगवान नेमिनाथ की प्रतिमा का ऐसा अतिश्य रहा है कि यह स्थान ही अतिशय श्रेत्र बन गया, मन्दिर के शेष भाग का निर्माण शुरू हो गया, शिखर का निर्माण हुआ, स्थानीय लेविल पर कमेटी के गठन होते रहें। कमेटी का दिल्ली के ट्रस्ट से सम्पर्क बना रहा। लाला प्रेमचन्द जी जैन का आना-जाना लगातार रहता था। मन्दिर के मुख्य भाग का निर्माण सम्पूर्ण होने के बाद एक ऐसा सुखद अवसर आया कि कुछ समय पूर्व मुनि 108 श्री ‘विद्यानन्द जी’ महाराज के संज्ञान में आई हुई प्रथम तीर्थकर भगवान ‘आदिनाथ’ जी की अत्यन्त प्राचीन एवं भव्य प्रतिमा जो भारत सरकार के पुरातत्व विभाग से प्राप्त की गई थी। वह भव्य प्रतिमा पुरातत्व विभाग को मध्य प्रदेश के गुना शहर में खुदाई से प्राप्त हुई थी, जिसे उस समय अहिंसा मन्दिर दरियागंज दिल्ली में स्थापित करा दी गयी थी।
उक्त प्रतिमा जी अंहिसा मन्दिर दिल्ली से अहिंसा मन्दिर हरिद्वार स्थान ललतारौ पुल में विराजमान कर स्थापित की गई।
लाला प्रेमचन्द जी ने मुख्य वेदी की वेदी प्रतिष्ठा की और व्यवस्था हरिद्वार को सौंप दी। स्थानीय मंच पर कमेटियों के निकाय चुनाव समय-समय पर होते है।